कांटा कुछ इस तरह चुभा था
कि लहू रिस कर अरसा बीत गया।
रह गयी रगों में अब लहू की प्यास है ,
जिस्म मरा नहीं पर ज़िन्दगी की आस है।
लहू बह चुका, खारा पानी रुकता नहीं,
सूख कर मर चुके हैं हम, अब घाव भरता नहीं।
सारा लहू तो पी लिया, खारा पानी चूसते हो।
अब तरस खाओ, ताकत तो छोड़ दो,
रेगिस्तान बना दिया हमें, रेत को भी ठूंसते हो!
कब्र खोदने के लिए औज़ार तो छोड़ दो।
इतना लहू नही कि ताकत भरती जाए,
कब्र इतनी बड़ी नहीं की चैन कि नींद आ जाए।
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